शिव पार्वती विवाह कथा: प्रेम, तपस्या और दिव्य मिलन की अमर गाथा

Shiv Parvati Vivah

Shiv Parvati Vivah : महाशिवरात्रि हिन्दू धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। यह केवल एक व्रत अथवा धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं है, बल्कि यह दिन भगवान शिव और माता पार्वती के दिव्य मिलन का स्मरण कराता है। माना जाता है कि फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही भगवान शिव का विवाह माता पार्वती के साथ सम्पन्न हुआ था। इसलिए इस दिन व्रत और पूजा का विशेष महत्व है। श्रद्धालु इस दिन उपवास रखते हैं, शिवलिंग का पूजन करते हैं, रात्रि जागरण करते हैं और Shiv Parvati Vivah की कथा का पाठ करते हैं। यह कथा केवल एक धार्मिक प्रसंग ही नहीं, बल्कि प्रेम, तपस्या, त्याग और सत्य की विजय का अद्भुत संदेश देती है। Related Articles: विवाह से पूर्व की पृष्ठभूमि भगवान शिव ने अपने जीवन में सबसे पहले सती से विवाह किया था। परंतु पिता दक्ष द्वारा शिव का अपमान सह न पाने के कारण सती ने आत्मोत्सर्ग कर दिया। इससे शिवजी गहन तपस्या में लीन हो गए और वे संसार से लगभग विरक्त हो गए। इधर तारकासुर नामक असुर का उत्पात बहुत बढ़ गया था। उसे वरदान मिला था कि उसका वध केवल शिवजी के पुत्र के हाथों ही हो सकता है। देवताओं ने सोचा कि शिवजी का पुनः विवाह हो और उनसे एक ऐसा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हो, जो तारकासुर का अंत कर सके। उधर माता सती ने हिमवन और मैना के घर जन्म लेकर पार्वती रूप में पुनः अवतार लिया था। पार्वती जी शिवजी की अनन्य भक्ति और तपस्या में लीन हो गईं। उन्होंने कठिन तपस्या करके भोलेनाथ को प्रसन्न किया। इस भक्ति और प्रेम ने महादेव के हृदय को पिघला दिया और अंत में शिवजी ने पार्वती जी को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया। विवाह की तैयारी और बारात जब भगवान शिव विवाह के लिए हिमाचल के घर जाने लगे, तब उनकी बारात देखने लायक थी। क्योंकि शिवजी केवल देवताओं के ही नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के, सभी जीवों के देवता—”पशुपति” हैं। यही कारण था कि उनकी बारात में देवता, ऋषि-मुनि, गंधर्व, यक्ष, भूत-प्रेत, दानव, असुर, पशु-पक्षी और यहां तक कि कीड़े-मकोड़े तक शामिल थे। शिवजी का श्रृंगार भी अनोखा था। वे जटाओं में गंगाजल धारण किए हुए, गले में नागमणि के हार और शरीर पर भस्म लगाए हुए थे। भूत-प्रेत उनके साथी थे और डमरू-शंख और ढोल नगाड़ों की ध्वनि से नगर गूंज उठा। यह दृश्य देखकर पर्वतराज हिमालय की पत्नी मैना देवी घबरा गईं। उन्होंने पार्वती का विवाह ऐसे “भयानक” वर से करने से इन्कार कर दिया। तभी, माता पार्वती ने विनम्रता से प्रभु से निवेदन किया कि वे विवाह हेतु सद्गृहस्थ रूप धारण करें। माता की प्रार्थना सुनकर शिवजी ने स्वयं को दैवीय रूप में सजाया। दिव्य वस्त्र, चंदन, आभूषण और पुष्पमालाओं से अलंकृत होकर जब वे पार्वती के सामने आए तो सबके हृदय में श्रद्धा और आनंद से लहर दौड़ गई। वंशावली और नारद की बुद्धिमता विवाह के समय परंपरा अनुसार वर-वधू की वंशावली बताना आवश्यक था। पार्वती की वंशावली बड़े गर्व और उल्लास के साथ सुनाई गई। लेकिन जब शिवजी की वंशावली पूछी गई तो वहां उपस्थित देवता मौन हो गए। तब नारदजी ने स्थिति संभालते हुए कहा — “शंकर तो स्वयं परब्रह्म हैं। वे निराकार, अनंत और अजन्मा हैं। जिनका न आदि है, न अंत है, उनका वंश-वृक्ष कैसे बताया जा सकता है? वे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के जनक हैं, और आज पार्वती की कठोर तपस्या और भक्ति के कारण ही वे इस विवाह में सहभागी हुए हैं।” नारदजी के इन वचनों ने सभी को संतुष्ट किया और विवाह की प्रक्रिया आगे बढ़ी। Shiv Parvati Vivah का शुभ क्षण विधिविधान के अनुसार कन्यादान हुआ। हिमालय ने हाथ जोड़कर कहा—“महादेव! मैं अपनी पुत्री पार्वती का आपसे विवाह करता हूं, इसे अपनी अर्धांगिनी बनाकर स्वीकार করুন।” यह सुनकर भगवान शिव ने पार्वती का हाथ अपने हाथ में लिया और वेदमंत्रों के बीच अग्नि के चारों ओर फेरे लिए। देवता, ऋषि, गंधर्व, अप्सराएं और संपूर्ण लोक इस दिव्य युगल को देखकर आनंद से झूम उठे। स्वर्ग और पृथ्वी पर मंगलध्वनियां गूंजने लगीं। गंधर्वों ने गीत गाए, अप्सराओं ने नृत्य किया और सबके मन में अद्भुत प्रसन्नता का संचार हुआ। विवाह का महत्त्व और संदेश यह विवाह केवल शिव-पार्वती का व्यक्तिगत मिलन नहीं था, बल्कि यह संपूर्ण जगत के कल्याण की भूमिका बन गया। इस पावन संयोग से ही आगे चलकर भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ, जिन्होंने तारकासुर का वध करके देवताओं और मनुष्यों को उसके आतंक से मुक्त किया। शिव और शक्ति का यह पवित्र मिलन हमें यह संदेश देता है कि ईश्वर को पाने के लिए केवल कर्म या भक्ति ही नहीं, बल्कि सच्चे संकल्प और धैर्य की आवश्यकता है। पार्वती जी ने जिस अडिग प्रेम और साधना से महादेव को पाया, वह आज भी स्त्रियों के लिए आदर्श है। वहीं, शिवजी का पार्वती जी को स्वीकार करना यह दर्शाता है कि सच्चा प्रेम सभी रूपों, संस्कारों और रीति-रिवाजों से परे है। महाशिवरात्रि और वैवाहिक जीवन में महत्व मान्यता है कि जो दंपति महाशिवरात्रि के दिन उपवास और पूजा साथ में करते हैं और Shiv Parvati Vivah कथा का श्रवण करते हैं, उनके वैवाहिक जीवन में मधुरता बनी रहती है। पति-पत्नी के बीच आपसी विश्वास, प्रेम और सम्मान बढ़ता है। साथ ही, यह व्रत संतान सुख, सौभाग्य और परिवार की सुख-शांति प्रदान करने वाला भी माना जाता है। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित त्रियुगीनारायण में यह पावन विवाह संपन्न हुआ, जहां आज भी एक मंदिर इस दिव्य घटना का साक्षी है। कहा जाता है कि यहां की अग्नि तीन युगों से निरंतर प्रज्वलित है। निष्कर्ष Shiv Parvati Vivah केवल एक धार्मिक घटना नहीं, बल्कि जीवन का गहरा संदेश है। यह सिखाता है कि कठिन तपस्या और दृढ़ विश्वास से असंभव को भी संभव किया जा सकता है। जो प्रेम और भक्ति के मार्ग पर चलता है, अंततः वह ईश्वर को पा लेता है। महाशिवरात्रि हमें यही प्रेरणा देती है कि हम अपने जीवन में संयम, सत्य, प्रेम और निष्ठा को स्थान दें। जैसे पार्वती ने शिव को पाने के लिए तपस्या की और शिव ने उनके प्रेम को स्वीकार किया, वैसे ही हम भी भक्ति और श्रद्धा से जीवन को सम्पन्न और मंगलमय बना … Read more

भगवान गणेश की रहस्यमयी कहानी और गणेश चतुर्थी का महत्व

भगवान गणेश: जीवन कहानी, गणेश चतुर्थी

भगवान गणेश, जिन्हें गणपति, विनायक और विघ्नहर्ता के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म के सबसे प्रिय और पूजनीय देवताओं में से एक हैं। हाथी के मुख वाले इस दिव्य स्वरूप को बुद्धि, समृद्धि और सफलता का प्रतीक माना जाता है। कोई भी नया कार्य शुरू करने से पहले गणेश जी की पूजा करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। गणेश चतुर्थी का त्योहार, जो 2025 में 27 अगस्त को मनाया जा रहा है, उनके जन्म का उत्सव है और भारत का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। यह लेख भगवान गणेश की संपूर्ण जीवन कहानी, उनके जन्म की रहस्यमयी घटना, गणेश चतुर्थी का महत्व, और उनसे मिलने वाले जीवन के अमूल्य संदेशों को प्रस्तुत करता है। Related Articles: भगवान गणेश का जन्म: एक दिव्य कहानी माता पार्वती की इच्छा – भगवान शिव अक्सर कैलाश पर्वत से दूर तपस्या और भ्रमण के लिए चले जाते थे। एक बार जब वे लंबे समय तक अनुपस्थित रहे, तो माता पार्वती अकेलापन महसूस करने लगीं। उनके मन में एक पुत्र की इच्छा जागी, जो उनका अपना हो और उनकी रक्षा कर सके। गणेश की रचना – माता पार्वती ने अपने शरीर पर लगे हल्दी और चंदन के उबटन से मिट्टी मिलाकर एक सुंदर बालक की आकृति बनाई। अपनी दिव्य शक्ति से उन्होंने उस आकृति में प्राण फूंके, और इस प्रकार गणेश जी का जन्म हुआ। वह एक सुंदर, तेजस्वी और शक्तिशाली बालक थे। द्वार की रक्षा – एक दिन जब माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं, तो उन्होंने गणेश जी से कहा कि वे द्वार पर खड़े होकर रक्षा करें और किसी को भी अंदर न आने दें। गणेश जी ने माता की आज्ञा का पालन करते हुए द्वार पर पहरा दिया। हाथी के सिर की कहानी: त्रासदी से वरदान तक भगवान शिव का आगमन – जब भगवान शिव कैलाश लौटे और अपने घर में प्रवेश करना चाहा, तो गणेश जी ने उन्हें रोक दिया। गणेश जी ने शिव जी को पहले कभी नहीं देखा था, इसलिए वे नहीं जानते थे कि यह उनके पिता हैं। उन्होंने दृढ़ता से कहा, “मेरी माता ने मुझे कहा है कि किसी को भी अंदर न जाने दूं।” क्रोध और संघर्ष – भगवान शिव को यह अपमान लगा कि कोई अज्ञात बालक उन्हें उनके ही घर में प्रवेश करने से रोक रहा है। उन्होंने गणेश जी को समझाने का प्रयास किया, लेकिन गणेश जी अपनी माता की आज्ञा से डिगे नहीं। क्रोधित होकर शिव जी ने अपने त्रिशूल से गणेश जी का सिर काट दिया। माता पार्वती का रोष – जब माता पार्वती ने अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखा, तो वे अत्यंत क्रोधित हो गईं। उन्होंने भगवान शिव से कहा, “यदि आप तुरंत मेरे पुत्र को जीवित नहीं करेंगे, तो मैं समस्त सृष्टि का विनाश कर दूंगी।” उनके क्रोध को देखकर समस्त देवता घबरा गए। हाथी के सिर का प्रतिस्थापन – समस्या के समाधान के लिए भगवान शिव ने अपने गणों को आदेश दिया कि वे उत्तर दिशा में सिर करके सोने वाले पहले जीव का सिर लेकर आएं। गणों को एक मरणासन्न हाथी मिला, जिसका सिर उत्तर दिशा में था। उन्होंने उसका सिर काटकर लाया, और शिव जी ने उसे गणेश के धड़ पर लगाकर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया। गणपति की उपाधि और वरदान गणों के स्वामी – भगवान शिव ने नवजीवित गणेश को “गणपति” (गणों के स्वामी) की उपाधि दी। उन्होंने घोषणा की कि अब से गणेश सभी गणों के सरदार होंगे और किसी भी कार्य की शुरुआत से पहले उनकी पूजा करना अनिवार्य होगा। विशेष शक्तियां गणेश जी को निम्नलिखित विशेष शक्तियां और वरदान प्राप्त हुए: गणेश चतुर्थी: जन्मोत्सव का महापर्व त्योहार का महत्व – गणेश चतुर्थी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाई जाती है। यह त्योहार भगवान गणेश के जन्म का उत्सव है और हिंदू पंचांग के अनुसार नए सिर का प्रत्यारोपण का दिन भी माना जाता है। 2025 में गणेश चतुर्थी दस दिवसीय उत्सव – गणेश चतुर्थी का त्योहार दस दिनों तक चलता है। इन दस दिनों का अलग-अलग महत्व है: पहला दिन: गणेश स्थापना और प्राण प्रतिष्ठादूसरा से नौवां दिन: दैनिक पूजा-अर्चना और भजन-कीर्तनदसवां दिन (अनंत चतुर्दशी): गणेश विसर्जन गणेश पूजा की विधि मुख्य पूजा सामग्री षोडशोपचार पूजा – गणेश जी की पूजा में 16 उपचार शामिल हैं: विशेष मंत्र मूल मंत्र: ॐ गं गणपतये नमःगायत्री मंत्र: ॐ एकदंताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो दंती प्रचोदयात् गणेश जी के प्रतीकात्मक स्वरूप का अर्थ हाथी का सिर बड़े कान छोटी आंखें सूंड बड़ा पेट मूषक वाहन मोदक का महत्व – आध्यात्मिक प्रतीकवाद – मोदक गणेश जी का प्रिय भोजन है, जिसका गहरा आध्यात्मिक अर्थ है: जीवन के संदेश – मोदक के माध्यम से मिलने वाले संदेश: गणेश जी से मिलने वाले जीवन के संदेश विघ्न निवारण – गणेश जी “विघ्नहर्ता” कहलाते हैं। वे हमें सिखाते हैं: बुद्धि और विवेक विनम्रता नई शुरुआत परिवार के प्रति प्रेम गणेश चतुर्थी मनाने के आधुनिक तरीके घर पर उत्सव सामुदायिक उत्सव पर्यावरण संरक्षण गणेश विसर्जन: विदाई का भावपूर्ण क्षण विसर्जन की परंपरा – गणेश विसर्जन का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है: विसर्जन मंत्र “गणपति बप्पा मोर्या, पुढच्या वर्षी लवकर या”(गणपति बाप्पा मोरया, अगले साल जल्दी आना) निष्कर्ष : भगवान गणेश की जीवन कहानी केवल एक पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि जीवन जीने की एक पूर्ण शिक्षा है। उनका जन्म, संघर्ष, और अंततः सफलता का सफर हमें सिखाता है कि जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना कैसे करना चाहिए। गणेश चतुर्थी का त्योहार हमें याद दिलाता है कि बुद्धि, धैर्य, और विनम्रता के साथ कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। गणेश जी का संदेश स्पष्ट है: जीवन में सफलता पाने के लिए अहंकार छोड़ना, बुद्धि का प्रयोग करना, और सभी के साथ प्रेम से रहना आवश्यक है। उनके आशीर्वाद से हम सभी विघ्नों को पार करके खुशी और समृद्धि का जीवन जी सकते हैं। FAQ – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न गणेश चतुर्थी 2025 में कब है? गणेश चतुर्थी 2025 में 27 अगस्त, बुधवार को मनाई जा रही है। चतुर्थी तिथि 26 अगस्त दोपहर 1:54 बजे से शुरू होकर 27 अगस्त दोपहर 3:44 बजे तक है। भगवान गणेश का सिर हाथी का क्यों है? भगवान … Read more

अश्वत्थामा: अमर योद्धा की संपूर्ण कहानी – श्राप, रहस्य और सत्य

Ashwatthama Story in Hindi

महाभारत के सबसे रहस्यमयी और विवादित पात्रों में Ashwatthama का नाम सर्वोपरि है। गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र, भगवान शिव के अंश और सात चिरंजीवियों में गिने जाने वाले अश्वत्थामा की कहानी केवल एक पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि आज भी जीवंत रहस्य है। भगवान श्रीकृष्ण के श्राप के कारण वे आज भी पृथ्वी पर भटक रहे हैं और अनंतकाल तक भटकते रहेंगे। यह लेख की संपूर्ण गाथा प्रस्तुत करता है – उनका जन्म, दिव्य शक्तियां, महाभारत युद्ध में भूमिका, ब्रह्मास्त्र का प्रयोग, श्रीकृष्ण का श्राप और आधुनिक काल में उनकी उपस्थिति के प्रमाण। Related Articles: Ashwatthama का जन्म और दिव्य शक्तियां जन्म की दिव्य कथा – Ashwatthama के पिता द्रोणाचार्य ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें एक दिव्य पुत्र का वरदान दिया। माता कृपी के गर्भ से जन्मे अश्वत्थामा के जन्म के समय घोड़े की सी आवाज आई थी, इसीलिए उनका नाम “अश्वत्थामा” पड़ा। मणि की दिव्य शक्ति – Ashwatthama का जन्म मस्तक पर एक दिव्य मणि के साथ हुआ था। यह मणि उन्हें असाधारण शक्तियां प्रदान करती थी: महाभारत युद्ध में अश्वत्थामा की भूमिका कौरव सेना के महारथी – Ashwatthama ने कुरुक्षेत्र युद्ध में कौरवों की तरफ से लड़ाई की। वे एक कुशल धनुर्धर, रथी और दिव्यास्त्रों के ज्ञाता थे। युद्ध के दौरान उन्होंने अपनी वीरता और शक्ति का प्रदर्शन किया। पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु – जब पांडवों ने छल से द्रोणाचार्य का वध कराया (अश्वत्थामा हाते इति गज: का झूठा संदेश), तो अश्वत्थामा में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने एक क्रूर योजना बनाई। रात्रिकालीन आक्रमण और महापाप सोते हुए योद्धाओं पर आक्रमण – युद्ध समाप्ति के बाद रात के समय, जब पांडव शिविर में सभी सो रहे थे, अश्वत्थामा ने कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ मिलकर आक्रमण किया। उन्होंने निम्नलिखित योद्धाओं का वध किया: यह कृत्य धर्मयुद्ध के नियमों के विपरीत था क्योंकि सोते हुए और निहत्थे व्यक्तियों पर आक्रमण अधर्म माना जाता है। ब्रह्मास्त्र का प्रयोग और महान गलती पांडवों का पीछा – जब पांडवों को इस नरसंहार का पता चला, तो वे Ashwatthama का पीछा करते हुए व्यास मुनि के आश्रम पहुंचे। वहां अश्वत्थामा ने देखा कि उसे चारों तरफ से घेर लिया गया है। ब्रह्मास्त्र की चुनौती – घबराहट में अश्वत्थामा ने सबसे शक्तिशाली दिव्यास्त्र “ब्रह्मास्त्र” का प्रयोग किया। लेकिन समस्या यह थी कि वे इसे वापस लेने की विधि नहीं जानते थे। अर्जुन ने भी जवाब में ब्रह्मास्त्र चलाया। उत्तरा के गर्भ पर निशाना – अश्वत्थामा ने अपने ब्रह्मास्त्र को उत्तरा (अभिमन्यु की पत्नी) के गर्भ में पल रहे शिशु पर केंद्रित कर दिया, ताकि पांडव वंश का नाश हो जाए। श्रीकृष्ण का श्राप: अमरता की सजा गर्भस्थ शिशु की रक्षा – भगवान श्रीकृष्ण ने तुरंत हस्तक्षेप करके उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु (राजा परीक्षित) की रक्षा की। दोनों ब्रह्मास्त्रों को निष्क्रिय करने के बाद श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से उसकी मणि मांगी। मणि का हरण – श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के मस्तक से उसकी दिव्य मणि निकाल ली। इसके साथ ही उनकी सारी दिव्य शक्तियां समाप्त हो गईं। अमरता का श्राप – श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को निम्नलिखित श्राप दिया: “तुम कलियुग के अंत तक पृथ्वी पर भटकते रहोगे। तुम्हारे शरीर पर घाव हमेशा बने रहेंगे जो कभी नहीं भरेंगे। तुम्हें भूख, प्यास और पीड़ा सताती रहेगी। कोई व्यक्ति तुमसे मित्रता नहीं करेगा। तुम एकाकी जीवन व्यतीत करोगे और मृत्यु तुम्हें कभी नहीं मिलेगी।” आधुनिक काल में अश्वत्थामा की उपस्थिति मध्य प्रदेश के असीरगढ़ किले में असीरगढ़ किले के शिव मंदिर में एक अनोखी परंपरा है। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि प्रतिदिन सुबह मंदिर खोलने पर शिवलिंग पर ताजे फूल और गुलाल मिलते हैं। स्थानीय मान्यता के अनुसार, Ashwatthama रात में आकर भगवान शिव की पूजा करते हैं। नर्मदा नदी के तटों पर गुजरात और मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के किनारे कई लोगों ने एक रहस्यमय व्यक्ति को देखने का दावा किया है। इस व्यक्ति के शरीर पर घाव होते हैं और वह हमेशा अकेला रहता है। हिमालय की गुफाओं में कई साधु-संतों ने हिमालय की गुफाओं में तपस्या करते हुए एक दिव्य पुरुष को देखने का दावा किया है। उनके अनुसार यह व्यक्ति अश्वत्थामा हैं। अन्य स्थान चिरंजीवी: सात अमर व्यक्तित्व – अश्वत्थामा को सात चिरंजीवियों में गिना जाता है: ये सभी कलियुग के अंत तक जीवित रहेंगे और भगवान कल्कि के अवतार के समय मुक्ति पाएंगे। कहानी से मिलने वाले संदेश – अश्वत्थामा की कथा हमें निम्नलिखित सबक देती है: क्रोध का परिणाम – अनियंत्रित क्रोध और प्रतिशोध की भावना कैसे विनाश का कारण बनती है। धर्म-अधर्म का फर्क – युद्ध में भी नैतिक नियमों का पालन आवश्यक है। कर्म का सिद्धांत – गलत कार्यों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। शक्ति का दुरुपयोग – दिव्य शक्तियों का गलत इस्तेमाल स्वयं के लिए अभिशाप बन जाता है। निष्कर्ष अश्वत्थामा की गाथा केवल एक पौराणिक कहानी नहीं है, बल्कि मानव स्वभाव, धर्म-अधर्म और कर्म-फल के सिद्धांत का जीवंत उदाहरण है। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि शक्ति का सदुपयोग करना चाहिए और क्रोध पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। आज भी जब हम अन्याय और प्रतिशोध की घटनाएं देखते हैं, तो Ashwatthama की कथा हमें सही राह दिखाती है। FAQ – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न अश्वत्थामा कौन थे? अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे, जो भगवान शिव के अंश से जन्मे थे। वे महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा और सात चिरंजीवियों में से एक हैं। श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को क्यों श्राप दिया? अश्वत्थामा ने सोते हुए पांडव योद्धाओं की हत्या की और ब्रह्मास्त्र से उत्तरा के गर्भस्थ शिशु को मारने का प्रयास किया। इन अधर्मी कृत्यों के कारण श्रीकृष्ण ने उन्हें अमरता का श्राप दिया। क्या अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं? हिंदू मान्यताओं के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और विभिन्न स्थानों पर देखे गए हैं। वे कलियुग के अंत तक भटकते रहेंगे। अश्वत्थामा की मणि का क्या महत्व था? अश्वत्थामा के मस्तक पर जन्म से एक दिव्य मणि थी जो उन्हें भूख, प्यास, रोग और हथियारों से सुरक्षा प्रदान करती थी। श्राप के समय श्रीकृष्ण ने यह मणि छीन ली। अश्वत्थामा को मुक्ति कब मिलेगी? पौराणिक मान्यता के अनुसार अश्वत्थामा … Read more

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